Thursday, March 19, 2009
आम आदमी पिस रहा है और सरकारी आंकडों में मंहगाई घट रही है
सरकार पिछले कुछ सप्ताहों से हर गुरुवार को यह दावा कर रही है कि देश में स्फीति की दर में कमी हो रही है। इस कमी के आधार पर ऐसा दावा भी हो रहा है कि इससे महंगाई कम होती है और करोड़ों नागरिकों को इससे राहत मिलती है। अंदाजे ये भी लगाए जा रहे हैं कि मुद्रास्फीति की दर शून्य से नीचे भी जा सकती है। महंगाई को अर्थशास्त्र की भाषा में मुद्रास्फीति कहा जाता है। इस वक्त यह दर घटकर 2।43 प्रतिशत रह गई है जो पिछले 14 महीनों में सबसे कम है। लेकिन मुद्रास्फीति की दर में आई कमी का कोई असर वस्तुत: महंगाई पर पड़ता नहीं दिखाई दे रहा है। खाने-पीने की चीजों और रोजमर्रा के सामानों की कीमतें कम होने की बजाय चढ़ती हुई दिखाई दे रही हैं। मैं अपनी पत्नी के साथ हर महीने गृहस्थी का सामान पास में स्थित एक मॉल से लाता हूं। कभी-कभार स्थानीय बनिए की सेवाएं भी लेता हूं। लेकिन इस दौरान ऐसा नहीं लगा कि चीजों की कीमतें महंगाई की दर में गिरावट के अनुरूप कम हुई हैं। कुछ दिन पहले 17-18 रु. में मिलने वाली चीनी अब 21-22 रु. किलो है। दाल के भावों में कोई कमी नहीं आई है। छह महीने पहले जब कीमतों में तेजी से देश कराह रहा था, तब सबसे बढि़या किस्म के छोले थोक में 53 रु. किलो थे और रिटेल में उसकी कीमत 80 रु. थी। थोक में छोले की कीमत अब जरूर घटकर 33 रु. रह गई है, लेकिन मॉल्स और रिटेल स्टोर में कीमतें वही हैं। हरी सब्जियां अवश्य कुछ सस्ती हुई हैं, लेकिन आम आदमी की सब्जी आलू-प्याज पुराने भाव पर ही मिल रहे हैं। फलों की कीमतें कम नहीं हुई हैं। सेब 120 रु. किलो, अंगूर 60 रु. किलो, केला 23-24 रु. के एक दर्जन। ब्रेड तो दिन पर दिन महंगी ही हो रही है। यही हाल बिस्कुट, अंडे, बटर, जैम आदि का है। पेट्रॉल-डीजल और रसोई गैस की कीमतें कम हुई हैं, लेकिन उनसे मेरे ऑटो या टैक्सी का बिल कम नहीं हुआ है। सवाल यह है कि अगर मुद्रास्फीति तीन प्रतिशत से नीचे आ गई है, तो होटेल-रेस्तरां में खाने की थाली या दाल की कटोरी की कीमत कम क्यों नहीं हुई है। हवाई भाड़ा भी कम नहीं हुआ है, बल्कि एटीएफ की कीमतों में कमी के बावजूद वह बढ़ाया जा रहा है। मुद्रास्फीति की दर में कमी और महंगाई बढ़ने के इस 'अनोखे रिश्ते' का कारण यही लगता है कि सरकार के जो आंकड़े हैं, वे असलियत से कोसों दूर हैं और महज कागजों में हैं। सरकार मुद्रास्फीति की जो दर घोषित करती है, वह थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर तय की जाती है। थोक व्यापारी मित्रों का कहना है कि थोक कीमतें जरूर कम हुई हैं, लेकिन रिटेल स्तर पर इस कमी को नहीं पहुंचाया गया है। पिछले कुछ महीनों में थोक स्तर पर दालों जैसे मूंग, उड़द, चना, अरहर आदि की कीमतें 20 से 30 प्रतिशत कम हो गई हैं। इसी तरह चीनी सस्ती हुई है। गेहूं-चावल काफी सस्ते हुए हैं, लेकिन कीमतों में यह कमी नीचे तक नहीं पहुंच रही है। इसका कारण यह है कि सरकार का डंडा थोक स्तर पर तो पड़ता है, लेकिन रिटेल दुकानदारी उससे बेअसर रहती है। इसकी एक अहम वजह यह हो सकती है कि थोक व्यापारियों की संख्या कम है, उन पर निगाह रखना और उन्हें काबू में रखना आसान होता है। इसके बरक्स मॉल, डिपार्टमेंटल स्टोर्स और परचून की दुकानों की संख्या हजारों-लाखों में है। इनकी निगरानी काफी कठिन है। दूसरी वजह यह है कि इनकी जांच के काम में लगे ज्यादातर इंस्पेक्टर भ्रष्ट और कामचोर हैं। और तीसरे जनता को अपने अधिकारों की जानकारी भी नहीं है। लोगों में न तो न तो इतनी समझ है कि वे हर हफ्ते महंगाई दर के मुताबिक चीजों की कीमतों की तुलनात्मक गणना कर सकें और न ही इसके लिए उनके पास समय है। यदि लोग ऐसा करते भी हैं, तो सवाल यह है कि वे इसकी फरियाद कहां करें? जहमत उठा कर यदि शिकायत की भी जाती है, तो उस पर फैसला आने में कई साल लग जाते हैं। इस समस्या का एक दूसरा पहलू भी है। बेरोजगारी के चलते अनेक नौजवानों ने दुकानें खोल ली हैं। संयुक्त परिवार ज्यों-ज्यों बड़े हुए, उसके नए सदस्यों ने अपने रोजगार के लिए आसपास ही अपनी नई दुकानें खोल लीं। दुकानों की संख्या तो बढ़ गई, लेकिन ग्राहकों की संख्या तो तकरीबन वही रही। जाहिर है, इस कारण दुकानदारों का माजिर्न कम हुआ है, जिसे पूरा करने के लिए वे थोक स्तर पर घटाए गए मार्जिन को आम ग्राहकों तक पहुंचाने में रुचि नहीं लेते हैं। पर यहां असल सवाल कीमतों में कमी लाए जाने का है। जब महंगाई की दर पिछले तीन महीनों में एक तिहाई रह गई हो, तो कीमतों में कुछ तो कमी होनी ही चाहिए। सरकार को थोक कीमतों में हुई कमी का कुछ लाभ रिटेल स्तर पर पहुंचाने की कोशिश करनी ही चाहिए। अगर ऐसा नहीं किया, तो एक दिन जनता मुद्रास्फीति की दर के आधार पर महंगाई कम होने के सरकार के दावे को मानने से ही इनकार कर देगी। सरकार चाहे तो चीजों की कीमतों और महंगाई की दर में स्पष्ट दिखने वाला रिश्ता कायम कर सकती है। गौरतलब है कि शहरों में अब ज्यादातर शॉपिंग मॉल और डिपार्टमेंटल स्टोर्स से की जाती है। इनकी संख्या कम होती है, पर आबादी के बड़े हिस्से की जरूरतें इनसे पूरी होती हैं। सरकार इन पर आसानी से निगाह रख सकती है। इसी तरह गली-नुक्कड़ों पर स्थित दुकानों, बनिया, पंसारी की निगरानी के लिए और ज्यादा इंस्पेक्टरों की नियुक्ति की जा सकती है। ये इंस्पेक्टर दुकानदारों की कारगुजारियों की अनदेखी नहीं करें, इसके लिए टीवी चैनलों पर और अखबारों में हर हफ्ते थोक कीमतों और उनसे प्रभावित अधिकतम रिटेल कीमतों की घोषणा करवाई जा सकती है। उन कीमतों को लागू नहीं करने वाले दुकानदारों के लिए कोई सजा मुकर्रर की जा सकती है। ऐसे दुकानदारों पर नकेल कसने का तरीका यह है कि उन्हें बैंक आदि से लोन न लेने दिया जाए। उनका बिजली-पानी का कनेक्शन काट दिया जाए। सोशल वर्करों को भी उनकी निगरानी का काम सौंपा जा सकता है।
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