तारीख: 27 जून 2007। समय: सुबह 7.53 मिनट। स्थान: भाईंदर स्टेशन। अंधेरी जाने के लिए 27 साल के नव-विवाहित चंदन मिश्रा स्टेशन पर धक्का-मुक्की के बीच ट्रेन में चढ़ने की जद्दोजहद करता है। भीड़ के मारे वह घुस नहीं पाता है। कुछ ही पल बाद वो प्लैटफार्म के आगे गिरा हुआ मिलता है। घायल अवस्था में पड़ा चंदन आते-जाते लोगों से कराहते हुए याचना करता है कि कोई उसे अस्पताल पहुंचा दे, मगर कोई नहीं सुनता है। वहां से जब 8.25 की लोकल गुजरी तो मोटरमैन ने ट्रेन रोकी और उससे चंदन को बोरिवली स्टेशन ले जाया गया। बताने वाले बताते हैं कि बोरिवली स्टेशन पर लिखा-पढ़ी करने में इतनी देरी कर दी गई कि चंदन भगवती अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ चुका था। चंदन तो बस एक उदाहरण मात्र है कि किस तरह से यहां लोकल ट्रेनों के आकर लोगों की जीवन लीला चुटकियों में समाप्त होती जा रही है। इसकी वजह क्या है, इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, मगर जो सबसे बड़ा कारण यह है कि अपना एक-दो मिनट बचाने के चक्कर के में यात्री या तो ट्रैक क्रास करने लगते हैं या फिर ट्रेनों की छत पर चढ़ जाते हैं। दोनों ही परिस्थितियों में भुगतना यात्रियों को ही पड़ता है। सेंट्रल और वेस्टर्न रेलवे यानी कि सीएसटी से लेकर खोपोली-पनवेल-कर्जत-कसारा और चर्चगेट से लेकर विरार तक दौड़ने वाली लाइफलाइन पर कुल मिलाकर रोजाना 5 लोग ऑफिशली कट जाते हैं। जबकि एक अनुमान के मुताबिक यह संख्या 10 तक है। इनमें से अधिकांश मर जाते हैं या फिर जीवन भर के लिए अपाहिज हो जा रहे हैं। यूं तो रेलवे ऐसे यात्रियों को जागरूक बनाने के लिए समय-समय पर अभियान चलाती रहती है, मगर ट्रेसपासिंग की घटनाएं हैं कि रुकने का नाम नहीं लेती हैं। लोकल ट्रेनों की चपेट में आकर साल-दर-साल मरने और घायल होने वालों का ब्यौरा हमने चार्ट के माध्यम से समझाने की कोशिश की है। हालांकि ये तथ्य जानकर आपको हैरानी हो सकती है कि ट्रैक से कटकर मरने वालों में दिल्ली शहर के सबसे ज्यादा लोग हैं बावजूद इसके कि उस शहर का सबर्बन नेटवर्क मुम्बई की अपेक्षा काफी छोटा है। दिल्ली में रोजाना औसतन 12 लोग सबर्बन रेलवे की चपेट में आकर या ते दम तोड़ देते हैं या अपाहिज हो जाते हैं। आरटीआई से प्राप्त आंकड़ों से पता चला है कि 5 सालों में (2004 से 2008 तक) 18,768 लोग लोकल ट्रेनों से कटकर मरे जबकि दिल्ली में 21,137 लोग कटकर मर गए। दिल्ली में ज्यादा होने वाली घटनाओं के बारे में जानकारों का कहना है कि वहां पटरियों के आसपास एनक्रोचमेंट, जन-जागरुकता की कमी और ठंड में कुहासों की मौजूदगी ऐसी घटनाओं का कारण बनती हैं। जबकि मुम्बई में रेलमपेल गदीर् और यात्रियों द्वारा अपना एक-दो मिनट बचाने के लिए ट्रैक-क्रॉस करना, बड़ी वजह बताई जाती है। यही नहीं, इससे बड़ा अचरजकारी तथ्य यह है कि इसमें से कटकर मर जाने वालों में से कई लोगों को लावारिस मानकर उन्हें या तो दफना दिया जाता है या उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। क्योंकि उनकी लाशों को क्लेम करने वाला कोई आगे नहीं आ पाता। खुद जीआरपी से प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि करीब 38 प्रतिशत लाशों को क्लेम करने कोई नहीं आ पाता। मसलन साल 2008 में 3,782 लोग लोकल के चलते विभिन्न कारणों से मरे, मगर उनमें से 1,434 लाशों का कोई वारिस आगे नहीं आया। इसके बारे में जीआरपी यही कहती आई है कि ज्यादातर यात्रियों का कोई पहचान नहीं होता और कई दफा शव इतनी बुरी तरह से क्षत-विक्षत हो जाता है कि उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है, ऐसे में मरने वाले के कपड़े और साजो-सामान ही पहचानने की मुख्य वजह बनती हैं। इनमें से ज्यादातर लोग या तो कचरा बीनने वाले होते हैं या फिर भिखारी। हालांकि लाशों को पहचानने के लिए उन्हें तीन महीने तक मुर्दाघर में रखा जाता है और इस अवधि तक कोई क्लेम करने को नहीं आता है तो हम उसका अंतिम संस्कार कर देते हैं। यह पूछने पर कि अंतिम संस्कार आप कैसे करते हैं, जीआरपी के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि अक्सर हम मरने वाले के शरीर और मुख्यतया उनके गुप्तांगों का सहारा लेते हैं।
Sunday, April 25, 2010
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