ऐसा शायद पहली बार हुआ है कि तीन बड़ी राजनीतिक पार्टियों की मुंबई की कमान हिंदी भाषियों के हाथ में है। मुंबई बीजेपी के अध्यक्ष पद पर राज पुरोहित की नियुक्ति के बाद मुंबई के राजनीतिक हलकों में इस 'हिंदी त्रिमूर्ति' के बढ़े हुए कद के कई अर्थ लगाए जा रहे हैं। जिसमें से एक यह है कि मुंबई में मराठी राज की पकड़ ढीली पड़ रही है। मुंबई कांग्रेस के अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह, एनसीपी के मुंबई अध्यक्ष नरेन्द्र वर्मा और अब पुरोहित का चयन ने महानगर के बदले चरित्र पर मुहर लगाई है। यह बात शिवसेना, खास कर मनसे के लिए चुनौतीपूर्ण है और इसी घटना को ये दोनों पार्टियां मराठी मन को उकसाने के लिए भुना सकती है। सिंह, वर्मा और पुरोहित का छिपा एजेंडा राज ठाकरे का सामना करना हैं, हालांकि बीएमसी के चुनाव में कांग्रेस और एनसीपी की रणनीति अलग हो सकती है। गत लोकसभा एवं विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस ने शिवसेना-बीजेपी के वोट काटने के लिए मनसे का खुलकर उपयोग किया। आगामी बीएमसी के चुनाव में यही रणनीति अपनाई जाने के आसार है। मुंबई के लिए कांग्रेस अक्सर गैर मराठी नेता चुनती रही है। श्री मुरली देवड़ा 25 साल मुंबई के अध्यक्ष थे और स्व. रजनी पटेल मुंबई कांग्रेस के बहुत काबिल अध्यक्षों में गिने जाते थे। उसके बावजूद मुंबई के कांग्रेसी वोट बैंक पर ज्यादा असर नहीं पड़ा है क्योंकि वह झोपड़पट्टी और दलित बस्तियों में केंद्रित है। पर सन् 1980 से मराठी मुद्दे ने जोर पकड़ा हैं। मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने के मुद्दे ने ही बीएमसी में शिवसेना-बीजेपी को बीएमसी में सत्ता दिलाई है। एनसीपी और बीजेपी ने अनेक बार मुंबई का नेतृत्व इसलिए मराठी शख्स को सौंपा है कि वही उसकी राजनीतिक जरूरत थी। पर अब मुंबई का राजनीतिक मैप मराठी पटरी से खिसक रहा है। सिंह, वर्मा और पुरोहित के चयन ने इसके संकेत दिए है।
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