महाराष्ट्र विधानसभा
चुनाव के नतीजे आ गए हैं और साफ हो गया है कि बीजेपी 122 सीटों (एक सीट सहयोगी पार्टी
को मिली है) के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। हालांकि, वह बहुमत से 22 सीट दूर है और उसे सरकार बनाने
के लिए किसी एक पार्टी के समर्थन की जरूरत पड़ेगी। शिवसेना को 63, कांग्रेस को 42 और एनसीपी को 41 सीटों पर जीत मिली है।
अब ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या बीजेपी और शिवसेना का अलग-अलग लड़ने का फैसला सही था? और क्या होता अगर महाराष्ट्र में दोनों गठबंधन नहीं टूटे होते? हालांकि यह एक काल्पनिक सवाल है लेकिन राज्य की राजनीतिक तस्वीर को समझने के लिए इसका जवाब खोजा जाना जरूरी है।
अगर बीजेपी, शिवसेना साथ मिलकर लड़तीं तो उनकी झोली को कम-से-कम 18 सीटें और आतीं, जबकि ऐसी स्थिति में कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिलकर लड़ने से भी दोनों पार्टियों को नौ सीटें कम मिलतीं। यह आकलन चारों पार्टियों को विधानसभा क्षेत्रों में मिले वोटों को जोड़कर किया गया है। हालांकि, यह वास्तविक स्थिति की सही तस्वीर नहीं पेश करती है क्योंकि राजनीति में अलायंस होने और उम्मीदवार के नाम जाति आदि के आधार पर एक दूसरी तस्वीर बनती है और उससे वोटिंग का पैटर्न भी बदल जाता है।
इस तथ्य को नजरंदाज करके चारों पार्टियों को मिले वोटों के आधार पर इसे देखें और यह मान लें कि दोनों गठबंधन बने रहने पर भी वोटिंग पैटर्न यही रहता तो बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन 203 सीटें जीत लेता, जबकि अलग लड़कर दोनों पार्टियों ने 186 सीटों पर जीत दर्ज की है। कांग्रेस और एनसीपी को साथ रहने पर 74 सीटों पर जीत मिल सकती थी। अलग-अलग लड़ने पर दोनों पार्टियों ने कुल 83 सीटें जीती हैं।
इस में एक पहलू जोड़ते हैं कि बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूटने के बाद कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन बना रहता तो कैसी तस्वीर सामने आती। इस स्थिति में कांग्रेस-एनसीपी के खाते में 118 सीटें जातीं, अभी मिलीं सीटों से 35 ज्यादा। इस परिस्थिति में बीजेपी को 102 सीटों पर और शिवसेना को 51 सीटों पर जीत मिलती।
अब ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या बीजेपी और शिवसेना का अलग-अलग लड़ने का फैसला सही था? और क्या होता अगर महाराष्ट्र में दोनों गठबंधन नहीं टूटे होते? हालांकि यह एक काल्पनिक सवाल है लेकिन राज्य की राजनीतिक तस्वीर को समझने के लिए इसका जवाब खोजा जाना जरूरी है।
अगर बीजेपी, शिवसेना साथ मिलकर लड़तीं तो उनकी झोली को कम-से-कम 18 सीटें और आतीं, जबकि ऐसी स्थिति में कांग्रेस-एनसीपी के साथ मिलकर लड़ने से भी दोनों पार्टियों को नौ सीटें कम मिलतीं। यह आकलन चारों पार्टियों को विधानसभा क्षेत्रों में मिले वोटों को जोड़कर किया गया है। हालांकि, यह वास्तविक स्थिति की सही तस्वीर नहीं पेश करती है क्योंकि राजनीति में अलायंस होने और उम्मीदवार के नाम जाति आदि के आधार पर एक दूसरी तस्वीर बनती है और उससे वोटिंग का पैटर्न भी बदल जाता है।
इस तथ्य को नजरंदाज करके चारों पार्टियों को मिले वोटों के आधार पर इसे देखें और यह मान लें कि दोनों गठबंधन बने रहने पर भी वोटिंग पैटर्न यही रहता तो बीजेपी-शिवसेना का गठबंधन 203 सीटें जीत लेता, जबकि अलग लड़कर दोनों पार्टियों ने 186 सीटों पर जीत दर्ज की है। कांग्रेस और एनसीपी को साथ रहने पर 74 सीटों पर जीत मिल सकती थी। अलग-अलग लड़ने पर दोनों पार्टियों ने कुल 83 सीटें जीती हैं।
इस में एक पहलू जोड़ते हैं कि बीजेपी और शिवसेना का गठबंधन टूटने के बाद कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन बना रहता तो कैसी तस्वीर सामने आती। इस स्थिति में कांग्रेस-एनसीपी के खाते में 118 सीटें जातीं, अभी मिलीं सीटों से 35 ज्यादा। इस परिस्थिति में बीजेपी को 102 सीटों पर और शिवसेना को 51 सीटों पर जीत मिलती।
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