Thursday, February 5, 2015

राणे ने सीधे-सीधे अपना नाम नहीं लिया

नारायण राणे एक बार फिर बेचैन हैं। इसी बेचैनी में उन्होंने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को एक और पत्र लिखा है। लेकिन, दिल्ली दरबार में उनकी सुनवाई नहीं हो रही है। पहले तो उनकी सुनी ही नहीं जाती थी, अब सुनी भी जाती है तो उस पर अमल नहीं होता।
यही कारण है कि एक-एक करके उनके करीबी साथी साथ छोड़कर जा रहे हैं। नौ साल पहले कांग्रेस के पीछे जो कारवां उन्होंने खड़ा किया था, उसमें दर्जन भर से ज्यादा विधायक स्तर के नेता उन्हें राम-राम कह गए। अधिकांश ने अपनी पुरानी पार्टी शिवसेना का दामन थामा है। पहले महाराष्ट्र के दूसरे इलाकों के पूर्व विधायकों ने साथ छोड़ा। अब यह भगदड़ उनके खुद के विधानसभा क्षेत्र पर मंडराने लगी है।
लोकसभा चुनाव के ठीक बाद राणे ने पार्टी को चेताया था। पृथ्वीराज चव्हाण को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मांग करते हुए राहुल को पत्र लिखा था। दिल्ली बुलाकर राणे की बात सुनी गई और बैरन लौटा दिया गया। राणे पर तब मुख्यमंत्री बनने का जोश सवार था। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष बनने के आलाकमान के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। बाद में तो खुद विधानसभा चुनाव हार गए। विधानसभा में विपक्ष का नेता पद भी नसीब नहीं हुआ।
सदा सरवणकर, जयंत परब, राजन तेली, सुभाष बने ने जैसे पूर्व विधायक चुनाव के पहले ही डगमगाती नैया के कूद निकले थे। बेहद करीबी माने जने वाले रवि फाटक शिवसेना में पहुँचकर विधायक बन गए। विनायक निम्हाण जैसे विधायकों की नींद चुनाव हारने के बाद खुली है। मुंबई से कांग्रेस के टिकट पर चुने गए कालिदास कोलंबकर जैसे गिने-चुने साथी ही राणे से निष्ठा निभाते दिखाई दे रहे हैं।

ऐसे में राणे की मनोदशा समझी जा सकती है। पिछली बार उनके आक्रामक तेवर को कांग्रेस में बगावत के तौर पर पेश किया गया। इसलिए राणे ने इस दफे बेहद संयमित सलीकेदार भाषा में '129 बरसों की विसारत' वाली पार्टी के उपाध्यक्ष को तार्किक ढंग से सलाह दी है। दिल्ली के नेताओं का महाराष्ट्र में कोटा खत्म करने का सुझाव रखा है।
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जनाधार वाले नेताओं' और 'सच्चे कार्यकर्ताओं' को पार्टी संगठन में स्थान देने की सलाह दी गई। राणे ने सीधे-सीधे अपना नाम नहीं लिया है। मगर उन्हें यह उम्मीद होगी कि इस बार पार्टी उनकी बात समझेगी।
शिकायतकर्ता वर्ग की शिकायतों की पड़ताल करके उन पर कार्रवाई करने की मश्विरा वे देना नहीं भूले हैं। कांग्रेस को महाराष्ट्र में पिछले लोकसभा चुनाव में दो ही सीटें मिल सकीं, इन दोनों जगहों पर मोर्चा संभाल रहे अशोक चव्हाण का नाम पार्टी ने प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए लगभग तय कर रखा है।
लेकिन जैसे ही चव्हाण का नाम चलता है, 'आदर्श सोसाइटी' में उनके रोल को लेकर खबरें मीडिया के एक वर्ग में शुरू हो जाती हैं। चव्हाण समर्थकों का आरोप है कि पार्टी की भीतर से इस तरह की 'प्रायोजित खबरें' प्लांट की जा रही हैं। कहीं राणे उनका पत्ता काटने की तो नहीं सोच रहे?

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